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Friday, October 02, 2009

“अखबार में कुछ बुरा”


“अखबार में कुछ बुरा”







आज फ़िर पढ़ लिया अखबार में, उसने कुछ बुरा
हाँ, कुछ ही, क्योंकि दुनिया में तो हो रहा है और भी बुरा
पर उसे तो लगता है यही बहुत बुरा
नहीं सोच पाती वह, क्या हो सकता है इससे भी बुरा
नहीं समझ पाती वह, जिन पर गुज़रता है यह सब
क्या बीतती होगी उन पर भला
खिन्न सा हो गया मन, जाने किससे है उसे गिला

अखबार के आखिरी पन्ने पर छपे
इन छोटे मोटे हादसों को
मनुष्य को मनुष्यता से दूर करती
इन दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को
ज़रा सी लालच, हवस, मूर्खताभरी नफ़रत
और द्वेष से जन्मे इन अपराधों को
गलती से पढ़ लेती है जब वह
मानव की आसुरी प्रवृत्तियों की पराकाष्ठाओं को

हाँ, गलती से ही तो पढ़ लेती है वह
क्योंकि नहीं चाहती उन्हें पढ़ना
बड़ा ही दर्दनाक होता है ना
सच्चाइयों से रुबरु होना
पर जानती है वह, बन्द कर लेने से आँखें
हकीकत बदल नहीं जाती
और उनका क्या जो नहीं कर सकते अनदेखा
जिन पर होती है ये ज़्यादती

बहुत खुश और महफ़ूज़ है वह
बड़ी खूबसूरत है उसकी दुनिया
खुले पंख उसके
और आंखों में आसमान नया
पर कसैला सा हो गया है मन
जब से पढ़ लिया है कुछ बुरा, उसने अखबार में
देश दुनिया की तरक्की की बातों से भरे
उस अखबार में

आज फ़िर नहीं लग रहा मन उसका
प्रगति की बातों में
नहीं लग रहा है उसका मन
प्रेम की बातों में
नहीं मिल रही शांति
सौंदर्य की बातों में

मन तो अजीब सा हो गया था
तड़प रहा था हृदय और ये चाह रहा था
कि जितना आसान है
अखबार के आखिरी पन्ने को जला देना
काश जला सकती फ़ाड़ के, इस भयानक पन्ने को
अपने देश की किस्मत की किताब से
मिटा देती खौफ़,
बेबस बुजुर्गों, सहमे बच्चों
और डरी हुई औरतों के नसीब से
नहीं लग रहा है मन उसका
पढ़ लिया है कुछ बुरा उसने,
अखबार में जब से…

तीन दिन पहले ही लिखी ये कविता आपको कैसी लगी ? जानती हूँ आप सब मु्झसे बहुत नाराज़ होंगे, पिछ्ली पोस्ट के बाद बहुत लम्बा गैप हो गया है ना !
दरअसल पिछ्ली पोस्ट के बाद तो मेरी सेहत का अलार्म बज गया था… कैसे ? अरे ये तो आप मेरे
बनाये इस स्केच को देखकर ही समझ सकते हैं… कैसा है ? वो पहले वाला भी मैंने ही बनाया है।


वो क्या है कि कुदरत को खालीपन पसन्द नहीं और मुझे बर्दाश्त नहीं… मतलब ये कि जब मैं व्यस्त नहीं होती तो अस्त व्यस्त हो जाती हूँ । और फ़िर मेरी सेह्त का अलार्म मुझे कह जाता है कि “लापरवाह लड़की ! वक़्त पर खाया कर और वक़्त पर सोया कर…!”
“अच्छा ठीक है…” मैं अपने आलसी अन्दाज़ में कह्ती हूँ और दो चार दिन में फ़िर अपनी गाड़ी चलने लगती है।

आजकल तो मैं योग करती हूँ और स्वस्थ हूँ, मस्त हूँ और व्यस्त हूँ ।
एक तो एमएससी का रिज़ल्ट आने में इतनी देर हो गयी थी… दूसरा पीएचडी के एडमिशन्स हैं कि शुरु ही नहीं हो रहे हैं। अब तक किसी तरह टाइमपास किया… ब्लोग बनाया, स्केच बनाये… 6 सितम्बर को इन्जिनियर्स सप्ताह के शुभारम्भ पर सीनियर रेलवे इन्स्टीट्यूट में “Responsibilities of youth towards country” विषय पर स्पीच दिया (पापा रेलवे में सेक्शन इन्जिनियर हैं) और 15 सितम्बर को इन्जिनियर्स सप्ताह की क्लोसिन्ग पर “पर्दे में रहने दो” सोन्ग पर डान्स किया। मज़ेदार रहा। पर कुछ भी हो… पढ़ाई के बिना ज़िन्दगी में मज़ा नहीं आता।

नवम्बर में पीएचडी के एन्ट्रेन्स एक्ज़ाम होने की सम्भावना है। आजकल इसीलिये पढ़ाई कर रही हूँ… मुझे रात में पढ़ना पसन्द है। मेरे लिये दुआ ज़रुर कीजियेगा… आप तो जानते हैं ना कि मुझे ‘पढ़ाई के बिना ज़िन्दगी में मज़ा नहीं आता।’


29 सितम्बर को मैं सत्रह साल की हो गयी। मेरा ये बर्थडे अब तक का मेरा सबसे अच्छा बर्थडे था… दोस्तों की शुभकामनायें तो रात 12 बजे से ही आनी शुरु हो गयीं थीं।
सुबह सबसे पहले मम्मी पापा और रवि ने विश किया, उसके बाद मैं कोलेज चली गयी थी। लौट कर कम्प्यूटर खोला तो देखा कि आप सब लोगों ने कितना सारा प्यार यहाँ बरसा रखा है (भीग गयी थी मैं तो!)… मुझे बहुत अच्छा लगा! Thank you sooooo much ! शाम को मम्मी पापा रवि और मैं “स्वाद री ढाणी” गये थे… खूब मज़े उड़ाए…


हालांकि कुछ फ़्रेन्ड्स ऐसे भी थे जिन्होंने अगली रात की 12 बजने से कुछ सेकन्ड पहले तक इन्तज़ार करवा के मेरे धैर्य की परीक्षा ली, सबसे ‘लेटेस्ट’ विश करना चाहते थे मुझे! (मैं सच में दुखी हो गयी थी), पर मज़ा बहुत आया… सबने याद रखा और सबने विश किया। और बिलेटेड विशेस के तो क्या कहने !

पर अब मस्ती बहुत हो चुकी… अब कोई सिर्फ़ डिक्शनरी पर बैठकर तो स्पेलिन्ग्स सीख नहीं सकता… मैं पीएचडी करके पढ़ाई खत्म कर लेना चाहती हूँ, इसके बाद 19 साल की होने के बाद NET का एक्ज़ाम और 21 साल की होने के बाद IAS देना है।
लोग कहते है… ‘तुम्हारे पास तो अभी बहुत वक़्त है… ’
‘अजी, तो क्या बर्बाद करने के लिये है ?’

बस इसीलिये कुछ न कुछ करती रह्ती हूँ…

और हाँ, बापू का बर्थ डे मुबारक हो!
:)

एडिट : अरे हाँ, क्या आपने ये देखा ? http://www.udanti.com/2009/09/blog-post_9782


Sunday, August 16, 2009

'प्रतिभा'

'प्रतिभा'

वह शांत थी अनजान थी
और उससे भी अधिक गुमनाम थी
घनघोर अँधेरे में रोशनी का एक कतरा गया
उसे जगाया गया, सहलाया गया
पर संकोच की परतों में वह, ढंकी रही, छिपी रही
पहचान तो गयी खुद को, पर सबकी नजरों से बची रही
ठहर ठहर के उसे ललकारा और उभारा गया
आ दिखा जौहर अपना, कहकर उसे पुकारा गया
मान अटल इस पुकार को, कठिन साधना से निखरी
ओजस्वी उसका आत्मबल, किरणें जिसकी बिखरी
आखिर जम कर चमकी गगन में, नजरो में उसकी कौंध चुभी
वो तो नहाई रोशनी में, औरों को उसकी चकाचौंध चुभी
लेकर आड़ खुबसूरत परन्तु खोखली बातों की, दुहाई दी, फुसलाया और डराया भी
बनी रही जब हठी तनिक वह, ज़रा उसे बहलाया भी
चकित हुई दोहरे बर्ताव से, हताश हुई, दुःख की हुँकार उठी
चख लिया था स्वाद उसने स्वतंत्रता का, कुचले जाने पर फुंफकार उठी
अंत किया इस द्वंद का, की सिंहनी सी गर्जना
जन्म लिया विद्रोह ने, तोड़ दी ये वर्जना
बीत गयी रात अन्धकार की, ये सुनहरी प्रभा है
ना छिप सकेगी, न दबेगी, ये अदम्य प्रतिभा है...!



... और ये चोरनी मैंने 9 अगस्त को बनाई थी... कैसी है ?
Thanks a lot in advance ! The all appreciation I m getting here, I m just loving it...
keep smiling you all awesome ppl !
:)

Saturday, August 08, 2009

'रूठी हुई खोपडी' (The upset head!)

कल अपने छोटे भाई रवि (कल वो नौ साल का हो गया) की किताबे देखते हुए अचानक मेरे दिमाग में एक कीडा कुलबुलाने लगा. उस कीडे ने कहा कि मुझे भी एक ड्राइंग बनानी चाहिए. और बना डाली ये रूठी हुई खोपडी, इसका ये नाम कैसे पड़ा.. जानना तो ज़रूर चाहेंगे आप ?

'मम्मी बोलो ये प्यारी है न ?' मैंने मम्मी से कहा था.
'प्यारी है.'
'मेरी तरह ?'
'अ... नहीं... रूठी हुई खोपडी कि तरह!' मम्मी ने मुस्कुरा कर कहा.

वैसे तो मै अपनी प्रैक्टिकल रेकॉर्ड्स में सैकडो जानवर बनाती रही हूँ ...( उनमे से कुछ आपको भी दिखा रही हूँ... मुझे एनिमल्स वैसे बहुत सोणे लगते है! ) लेकिन आजकल मेरे दिमाग का कीडा बहुत सक्रिय हो गया है पेंसिल स्केच बनाने के लिए बड़ा कुलबुला रहा है! जब तक मेरा पीएचडी में एडमिशन नहीं हो जाता ये कीडा वैसे भी मुझे खाली नहीं बैठने देगा. ज़रा देखकर बताइए तो क्या मै ड्राइंग बना सकती हूँ ?

"रूठी हुई खोपडी : the upset head"


चिलोन, एक कछुआ प्रजाति.


एक सेलामेनडर


अलाईटस, एक मेंडक


किंग कोबरा (शीट के ऊपर post graduate department लिखा था, post बाइन्डिंग में छिप गया है. M.Sc. final के दौरान बनाये थे ये diagrams .)


गिरगिट

Saturday, August 01, 2009

"साधारण से असाधारण..."

एक धड़धड़ाती हुई ट्रेन पहाडों के बीच से गुज़र रही थी, जिसे अपने पहले छोटे स्टेशन से छूटे ज़रा सा ही वक्त हुआ था और उसे एक लंबा… बहुत लंबा सफर तय करना था। उसी में बैठी थी वो खिड़की के पास… वादियों पर रास्ता लगातार ऊंचा उठता जा रहा था...
उस सड़क पर साइकिल चलाना मौत को दावत देना था… इसलिए सब लोग नीचे ही ठहरे हुए थे… पर वो अकेली अपनी पूरी ताकत लगाकर उस रस्ते चढ़ रही थी। लड़खड़ा रही थी और चढ़ रही थी। साँस रोके झुक कर पैडल मार रही थी…मानो चढ़ाई पार करने के बाद कोई ऐसी दुनिया है जहाँ उसे सबकुछ मिल जाने वाला है…
बहुत खतरनाक चढ़ाई थी… उसके पैर लड़खड़ा रहे थे और चढ़ते हुए चक्कर से आ रहे थे। रास्ता संकरा और दुर्गम था… जैसे उसे जान बचने के चढ़ना ही था… साँस फूल रही थी और कदम भारी हो रहे थे… एकमात्र उद्देश्य बस चढ़ना था…
वह अपने घर की छत पर खड़ी थी, मौसम बहुत अच्छा था, उसके साथ कुछ लड़कियां और थी. अचानक एक छोटा सा पुष्पक विमान जैसा कुछ नज़र आया, वह जैसे ही उनके करीब आया वह अपनी फ्रॉक संभालते हुए लपक कर उस पर चढ़ गई, पर उसने अपने दोस्तों का हाथ नहीं छोड़ा, लेकिन वो लोग उसके साथ नहीं आए और वह अकेले ही बादलो के पार चली गई…
ये सपने उसे अक्सर आते थे। और जैसे उसे चेतावनी सी देते हुए जाते थे, इनमे एक बात समान थी और वो ये कि मंजिल तक पहुँचने के लिए उसे जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती थी। लेकिन कभी उसने अपने आपको मंजिल तक पहुँचते नहीं देखा था, उससे कुछ देर पहले ही वह जाग जाती थी। उसे इन सपनो में भयानक डर लगता था। और यही डर उसे जागने के बाद सताता था… कहीं इतना संभल कर चलते हुए भी गुमनानी की खाई में वह गिर न जाए… लेकिन यही सपने उसे ऊर्जा से भरते थे। और वह जागती आँखों से उन सपनो को पूरा करना चाहती थी…
उसका जन्म राजस्थान के बारां जिले के 'जैपला' गाँव में 29 सितम्बर 1992 को हुआथा। उसके मम्मी पापा, श्री आर. एस. वर्मा और श्रीमती प्रभा स्वरुप, यहाँ के पहले शिक्षित दम्पति हैं। ज़ाहिर है उसके दादा दादी और नाना नानी अपने समय से बहुत आगे थे। वह उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित है।
उसके नानाजी अब इस दुनिया में नहीं हैं। जब से वे बीमार हुए थे वह इंतज़ार करती रही थी की जल्दी वे ठीक होंगे और उसे फ़िर से कहानियाँ सुनायेंगे… वो अपार ज्ञान का खज़ाना थे, जो खज़ाना उन्होंने किसी के सामने नहीं खोला था। वह अपने दिल में एक खाली जगह हमेशा महसूस करेगी। और उसके दादाजी ? 'वो तो बिल्कुल परफेक्ट दादाजी हैं…!' वह कहती थी। उसे उन लोगों से बहुत चिढ है जो बुजुर्गों का सम्मान नहीं करते.
वे लोग अपने गाँव में ज्यादा नहीं रहे क्योंकि पापा नौकरी के लिए अलग अलग जगह जाते रहे, अब कहाँ कहाँ जाते रहे, ये उससे न पूछो. ये कहानी तो आप कभी भी उसकी मम्मी या पापा से जान सकते हैं (अगर फुर्सत में होंगे तो वे और भी आपको बहुत कुछ बता देंगे, जिनके बारे में वो ईमानदारी से कहती, कुछ धुंधला सा याद तो हैं… पर नहीं, मुझे तो कुछ भी याद नहीं!)
उसे तो बस एक बात याद हैं, वो लोग किराये के मकान में रहते थे। और एक बार जब शायद पड़ोसियों या मकान मालिक से किसी बात पर मम्मी झगड़ रहीं थी तो वह बार बार मम्मी को घर में खींच रही थी, 'मम्मी अभी पापा यहाँ नहीं हैं, आप इनसे मत लड़ो-' पता हैं उसने ऐसा क्यों कहा ? क्योंकि हर बच्चे की तरह उसके पापा भी सुपरहीरो थे, अब सुपर हीरोज़ की भी तो मजबूरियाँ होती हैं, जब वो शहर के बआर थे, तो उड़ के तो हीरोइन (मम्मी) को बचाने आ नहीं सकते! अब जब वो यह याद करती हैं तो हंसती हैं कि वो कैसे भूल गई थी की उसकी मम्मी भी तो सुपर मॉम हैं! नाहक ही उसने मम्मी को लड़ने न दिया वरना उन पड़ोसियों से तो दो दो हाथ वे ही कर लेती ! आखिर मम्मी ने भी तो अपना गाँव में लगा लगाया सुपर वाइज़र का जॉब सिर्फ बच्चो की अच्छी परवरिश और उनके साथ रहने की खातिर छोड़ा था।
उसे जीवन की गति बहुत तेज़ लगती थी और कहीं वह पीछे न रह जाए इसलिए वो वक्त के पन्नों को पलटने से पहले सहेजती रहती थी। उसे कभी कभी बड़ा अफ़सोस होता हैं की उसकी याददाश्त उन याददाश्त के धुरंधरों जितनी तेज़ क्यूँ नहीं जिन्होंने गीनिज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपने नाम लिखा रखे हैं, कम से कम उसे अपना बचपन तो ठीक से याद होता! इस मामले में वह अपनी बेस्ट फ्रेंड रागिनी की कायल थी, जो कहती थी की उसे अपने बचपन की ज्यादातर बातें साफ़ साफ़ याद हैं।

'यार, मुझे तो कुछ ठीक से याद नहीं, मै सोचती हूँ कि अगर ज़्यादा याद होता तो बुढापे में थोड़ा एन्टरटेन्मेन्ट तो होता!' वह हंसकर कहती।

उसे अपने ठीक ठाक बचपन की शुरुआत गांधीधाम, गुजरात से लगती है जहाँ उसका पापा की रेलवेज़ में नौकरी लगने के बाद पहली पोस्टिंग हुई थी। उसके जीवन का हिस्सा थे उसके मम्मी पापा, उसका चार साल का भाई प्रतीक जो अब तक ठीक से 'बोलता नहीं था', उसका स्कूल, और उनके किराये के मकान, जिन्हे उन्हें जल्दी जल्दी बदलना पड़ता था, वैसे ये 'जल्दी जल्दी' ग्यारह महीने होते थे।
वह 6 साल की थी और सेकंड क्लास में पढ़ती थी। उसका स्कूल घर से पास था जहाँ वह मम्मी के साथ पैदल जाती थी, और जाने कब उसने अकेले जाना शुरू कर दिया।
वह बिल्कुल साधारण थी, (उसका मानना था) पर वो सबसे अलग थी। कई मायनो में, यूँ अलग थी कि उसे लगता था वह क्लास की एक साधारण सी बदसूरत लड़की थी।(हालाँकि क्लास में उससे भी बदसूरत बच्चे थे, जिनकी गिनती में वह नहीं आना चाहती, वो तो थे ही गंदे बच्चे!) या यूँ कह लीजिये वो एक अच्छी लड़की थी जो बस सुंदर नही दिखती! उसके गालों पर कुछ तिल थे, जिन्हें बड़े लोग तो भाग्यशाली होने की निशानी मानते थे पर वह अच्छी तरह जानती और मानती थी की ये न होते तो शायद वह सुंदर दिखती। हालाँकि कभी कभी वह इन्हें पसंद भी करती थी की इनके बिना तो वह बिल्कुल दूसरी लड़कियों जैसी लगती, जो वो नहीं चाहती थी, उसे अलग दिखना पसंद था।
उसे हमेशा लगता था कि वह एक औसत विद्यार्थी है, हालाँकि वह बुद्धिमान थी, पर जानती थी लोग उससे भी स्मार्ट हैं। वह कल्पना करती थी, खूबसूरत और तेज़ दिमाग वाले बच्चों को और क्या चाहिए होता होगा अपनी जिंदगी में। वह अपनी उम्र के मुताबिक बहुत ज़्यादा सोचती थी। छोटी छोटी बाटों के लंबे चौड़े कारण वह ढूंढ़ ही लाती थी। आप हसेंगे अगर यहाँ उसके विचारों कि पोल खोल दी गई, लेकिन उसे अपने विचारों पर पूरा यकीन था। वह लगभग सबकुछ जानती थी, लेकिन वह ये भी जानती थी कि लोग उससे बहुत ज्यादा जानते हैं, इसीलिए तो स्कूल जाती थी और सपने देखती थी कि एक दिन वह बहुत 'ज्ञानी' होगी।
इसके बावजूद भी उसके दोस्त थे, जिन्हें वह पसंद करती थी (पर वो लोग उसे गंभीरता से नही लेते थे, उसके मुताबिक ये सब अभी बच्चे हैं न, सच्ची दोस्ती के मायने नहीं समझते!) उसने ख़ुद ही उनमें से अपनी एक बेस्ट फ्रेंड मान ली थी आकांक्षा, जो पापा के स्टाफ के ही त्रिपाठी अंकल कि बेटी थी। शायद इसी से वह उसे अपने टाइप का महसूस करती थी। ये सब हमेशा क्लास में दूसरी या तीसरी लाइन में बैठते थे।

वह अपनी कुछ टीचर्स को बहुत पसंद करती थी खासकर मैथ्स वाली चांदनी मैम, पता नहीं उन्हें वह अब याद भी होगी कि नहीं, पर सादगी पूर्ण और मासूम टीचर उसे बड़ी पसंद आती थी। हाँ उसे स्टाइलिश वाली ख़ूबसूरत टीचर्स भी पसंद थी। लेकिन वह अपनी पसंदीदा टीचर्स कि पसंद बिल्कुल नहीं थी। उसे अक्सर नज़रंदाज़ किया जाता था।

क्लास के बच्चों में एक तरह कि छिपी हुई प्रतिद्वंदिता थी, एक दुसरे पर धौंस ज़माने के लिए तरह तरह के सामन उनके पास होते थे, जैसे खुशबूदार रबड़, बड़ी वाली पेंसिले, आकर्षक लंचबॉक्स वगैरा वगैरा… वो तो गनीमत है स्कूल में यूनिफ़ोर्म होती है, वरना आप जानते हैं क्या होता!
लेकिन वह कभी इन सब चीजों के लिए जिद नहीं करती थी। हालाँकि उसे उम्मीद थी कि शायद कभी उसे भी ये मम्मी पापा दिला दें। पर वह जानती थी इस उम्मीद का कोई आधार नहीं। सादगी और धैर्य का पाठ उसके मम्मी पापा ने बिना कहे ही उसे पढ़ा दिया था। उसे भी दिखावा बेकार लगता था। 'उफ़ ! ये बच्चे कभी बड़े नहीं होंगे!' वह अपनी क्लास के बच्चों के लिए कहती थी। (वैसे वह अब अपने कॉलेज के सहपाठियों के लिए भी यही कहती है, बावजूद इसके कि वह क्लास में सबसे छोटी है !) उसे तेज़ आवाज़ में गाना और डांस करना बहुत पसंद था, उसे लगता था बाकि बच्चो को तो संगीत कि समझ ही नहीं!
क्लास में सब लड़कियों के बाल लंबे थे, उसे छोड़कर, मम्मी कहती थी 'लंबे बालों को सँभालने में बहुत वक्त बरबाद होता है, उनमें जुएँ हो जाती है, और सुबह सुबह तेरी चोटियां बनने का वक्त मेरे पास नहीं।' और पापा कहते थे 'लंबे बालों से पढ़ाई में ध्यान नहीं लगता। सभी बड़े बड़े लोगों के बाल छोटे ही होते हैं, वे बालों पे नहीं अपने काम पर ध्यान देते हैं।' उसे कभी कभी लगता था वह स्कूल और घर के बीच एक ब्रिज है… और उसने ये भूमिका अच्छे से निभाई भी…
वह अपने मम्मी पापा कि हर बात मानती थी और उनकी समझदार और अच्छी बेटी बनी रहना चाहती थी। उसका होमवर्क हमेशा पूरा होता था, उसे कभी भी पनिशमेंट नहीं मिला। स्कूल से आकार होमवर्क करना और अपनी दुनिया में मस्त हो जाना। आप तो जानते ही है 6 साल के बच्चे कि दुनिया कितनी खूबसूरत होती है! उसका क्लास में हमेशा 8th या 9th रैन्क लगता था. उसके सब सब्जेक्ट्स में, खासकर गुजराती और इंग्लिश में अच्छे मार्क्स आते थे। उसने कभी सोचा ही नहीं कि इससे ज्यादा उसे कभी चाहिए। उसे ड्राइंग और पेंटिंग बहुत पसंद थे। वह कभी घर पे पढ़ाई नही करती थी, दरअसल उसे मालूम ही नही था कि ये भी करना होता है! कभी कभी वह कल्पना करती थी कैसा रहे अगर वह डॉक्टर, रायटर, पेंटर, टीचर, डांसर, सिंगर सब एक साथ ही बन जाये तो ? लेकिन फिर वह ये विचार त्याग देती थी... वर्कलोड थोडा ज्यादा हो जायेगा, औरो के लिए भी तो कुछ काम छोड़ने चाहिए आखिर !
और हाँ, खाने को लेकर उसे हमेशा डांट पड़ती थी! उसे लगता है इसी मामले में उसने अपने मम्मी पापा को बहुत दुखी किया है। वह खाने में बहुत नखरे करती थी और अगर थोड़ी भी ज़बरदस्ती कि जाए तो वह उल्टी कर देती थी. लेकिन वह औरों की तरह स्कूल से बचने के लिए पेटदर्द के बहने नहीं बनती थी, हालांकि लोगों को ये लगता था. पर शुक्र है, उसके मम्मी पापा उसकी बात मानते थे !
'हाँ तो कब हुआ बेटा पेट में दर्द ?' डॉक्टर ने पूछा था।

'मैं है न, घर घर खेल रही थी, तो मै सो रही थी न तो पेट में दर्द हुआ…'

'जब आप सो रहे थे तो पेट में दर्द कैसे हुआ ? या तो आप झूट बोल रहे हो या आप सो नही रहे थे-'

'नही…!!! मैंने कहा ना की मैं खेल रही थी, तो मैं सोने का नाटक कर रही थी ना !' वह बड़ी हैरान हुई थी डॉक्टर की नासमझी और अपने ऊपर इल्जाम लगता देखकर।

उसके स्कूल में हर साल पुस्तक मेला होता था, जिनमे उसे हमेशा मोटी मोटी किताबे ही पसंद आती, चाहे वह उन्हें पढ़ ही न सके!अखबार पढना उसने कब शुरू किया ये न उसे और न उसके मम्मी पापा को ही पता चल पाया.

T.V. वह ज्यादा नहीं देखती थी. जब तक मम्मी पापा देखते थे बस उनके साथ ही. हालाँकि उसे फिल्मे देखना अच्छा लगता था. कभी जब TV पर अध्यात्मिक सीरियल आते और वह ऋषि मुनियों को तपस्या करते और भगवान् को प्रसन्न होते देखती तो सोचा करती कि उसे भी ऐसा कुछ करना चाहिए और अपने घर के छोटे से मंदिर के सामने बैठ के शुरू हो जाती, लेकिन ये मम्मी भी न !

उसे अपना भाई प्रतीक बहुत पसंद है. आखिर वो दुनिया का सबसे अच्छा भाई है. वो चार साल का होने के बावजूद ठीक से बोलता नहीं था. किसी दिशा में उसकी नज़र टिकती नहीं थी. वह आवाज़ के प्रति बहुत संवेदनशील था और जल्दी ही असहज महसूस करने लगता था. ऐसा लगता था जैसे वह सब कुछ समझता है पर अपनी बात दूसरो तक पहुंचा नहीं पाता था. कभी कभी बहुत हँसता था और परेशान होने पर चिल्लाता था. कुछ शब्द बार बार दोहराता लेकिन साफ़ बात नहीं करता. अपनी धुन में मस्त रहता, वे लोग इस सबको उसके शर्मीले होने की निशानी समझते और कुछ असामान्य नहीं पाते.

कभी कभी उसे ये बात खलती थी की क्यों नहीं वह दुसरो के भाइयो की तरह उसके साथ खेलता और बात नहीं करता. काश उन्हें तब पता होता की वह औटिस्टिक है. उन्होंने काफ़ी इंतज़ार किया की कुछ बच्चे देर से बोलना सीखते हैं. फ़िर कई डॉक्टर के पास भी उसे ले जाया गया, यहाँ तक की देवी देवताओं के हर स्थान पर उसे ले जाया गया और पैसा भी खूब बहाया गया (नहीं, पानी की तरह नहीं, आज पानी पैसे से ज़्यादा कीमती है!) लेकिन कोई फायदा नहीं. कभी वे समझ ही नहीं पाए वह ऐसा क्यों है. डॉक्टर भी पता नहीं लगा सके की ये औटिस्म है.

औटिस्म बच्चे के विकास से जुडी एक ऐसी समस्या है, जो संवेदनात्मक अशक्तता है, जो बच्चे के बोलने, सामाजिक व्यवहार और इन्द्रियों के विकास को प्रभावित करती है. अगर इस समस्या को शुरूआती तीन सालो में समझ लिया जाए तो इस समस्या को आसनी से संभाला जा सकता है. लेकिन लोगों में इसके बारे में बहुत ग़लतफ़हमियाँ प्रचलित है. ये मानसिक बीमारी नहीं है और न ही इन्हें जिंदगीभर सहारे की जरुरत होती है. अगर इन्हें आत्मनिर्भर बना दिया जाये तो ये सामान्य जीवन जीते हैं.

लेकिन उस वक़्त उसके मम्मी पापा को भ्रमित होना पड़ा. प्रतीक बहुत पहले ही बेहतर स्थिति में होता यदि औटिस्म से जुडी जागरूकता और जानकारी का आभाव न होता.

वह अपने भाई से बहुत प्यार करती थी. वह जल्दी से बड़ी हो जाना चाहती थी और उसके लिए कुछ करना चाहती थी. वह डॉक्टर बनना चाहती थी और तरह तरह के ब्रेन ट्रांसप्लांट की योजना बनती रहती थी की प्रतीक ठीक हो सके. प्रतीक बहुत मासूम और प्यारा था. ज़ाहिर है लोगों का व्यवहार ऐसे बच्चो के लिए कुछ अच्छा नहीं होता. लोग झूठी सहानुभूति दिखाते और कुछ सच्ची सलाहे भी दे जाते. दुनिया में सब तरह के लोग होते हैं, कुछ लोग उसे मानसिक रूप से कमज़ोर साबित करने भी नहीं चूकते, जिस पर उसे बहुत गुस्सा आता था, पर वह कुछ कर नहीं सकती थी, छोटी जो थी. उसे पता था की अगर वह अचानक हँसता या रोता है तो इसमें कोई डरने की बात नहीं वह सिर्फ हमारा ध्यान खींचना चाहता है और हम तक अपनी बात पहुँचाना चाहता है.

उसने कई बार मम्मी को रोते देखा था और पापा जो हमेशा तनाव में रहते थे. इसीलिए वह बड़ी बहिन की तरह जितना वह कर सकती थी अपने भाई का ध्यान रखती थी और देखती थी की मम्मी पापा कोई उसकी वजह से कोई तकलीफ न हो. जब मम्मी पापा बाज़ार जाते या प्रतीक को लेकर कंही जाते तो वह घर पर अकेली रहती. वह बस इंतज़ार करती थी जब वह बड़ी हो जायेगी तो सब ठीक कर देगी

जब कभी उसकी छोटी छोटी नादानियों पे उसे मम्मी पापा डांट देते तो वह बहुत रोती थी. "लोग सोचेंगे हम तुझे बहुत बुरी तरह पीटते हैं… इतनी जल्दी रोना शुरू कर देती है!' वह बड़ी जल्दी रो पड़ती थी. (बाद में महसूस करती की वह जरुरत से ज्यादा नाटकबाज़ है !) और गुस्से में उल जुलूल सोचती थी लेकिन जब गुस्सा शांत हो जाता तो ख़ुद ही अपने आपको समझती. और फ़िर ख़ुद पे हंसती, और तय करती की मम्मी पापा की कभी शिकायत का मौका नहीं देगी. उसके लिए तो ये गायत्री मंत्र था जिसे जब भी वह अच्छे मूड में होती तो जपा करती… मेरे मम्मी- दुनिया की सबसे अच्छी मम्मी… मेरे पापा- दुनिया के सबसे अच्छे पापा… मेरा भाई – दुनिया का सबसे अच्छा भाई. उसके मम्मी पापा उसे बेइन्तहा प्यार करते है वह जानती थी.

हर साल गर्मी की छुट्टियों में वे अपने गाँव जाते थे. उसे ट्रेन में बैठना और गाँव जाना बेहद पसंद था. कच्चे मकानों को वह हमेशा कुतूहल से देखा करती थी. इनकी ऊंचाई कम होने से अक्सर उसके सर में चोट लग जाती और सब लोग उस पर खूब हंसा करते की इस शहरी लड़की को छोटे घरो की आदत नहीं. गाँव में अपने कजिन भाई बहनों के साथ वे गाँव वाले ही खेल खेला करते. बस ये कंचे खेलना उसे निहायती लड़को का खेल लगता था. वह तो अपनी दीदियों से कपड़े की गुडिया बनाना सीखती. और वे प्याज की चार टंगे लगा के उसे बकरा बना के हलाल करते और गुडिया के विवाह की दावत के नाम से खा जाते! उसे खेत जाना भी बहुत पसंद था. वह सब लोग काम कर रहे होते और वह आम के पेड़ पर चढ़ने की जाया कोशिश करती, लेकिन क्योंकि गाँव में उसे सब प्यार करते थे इसलिए उसे कच्ची कैरिया मिल ही जाती थी. वहां वे जितने दिन रुकते, वह दिनभर धुप में भटकती रहती, राजस्थानी बोलने की कोशिश करती, हँसी का पात्र बनती और खूब मजे उडाती ! हालाँकि मम्मी उसे बहुत डांटती पर वो वहां सबकी दुलारी जो थी, अपने मन की करती. मम्मी के मन करने के बावजूद दीदियों के साथ पानी भरने चली जाती. वे लोग उसके सर पर कोई छोटी सी मटकी रख देते और फ़िर उस पर खूब हँसते. वह घर पहुँचती और जोर से चिल्लाती… 'इससे पहले कि मैं इसे गिरा दूँ, इसे कोई उतारो !'
वैसे उसे ये मस्ती हज़म नहीं होती, धूप में घूमने से उसे सर में दर्द होता और खेत से कच्ची चीजे तोड़ के खाने से उसे उल्टियां हो जाती. वह जबरदस्ती चूल्हे के सामने बैठ जाती पर उससे निकलते धुएं से उसकी नन्ही आँखे बहुत जलती.

उसकी मम्मी का गाँव 'गेहुखेडी' भी जैपला से पास ही था. वहां जो नीम का पेड़ है उसे आज भी उस पर चढ़ना बहुत पसंद है. एक तो जमीन से इतना ऊपर होना एक रोमांचक एहसास है दूसरा पेड़ की ठंडी छाँव और गाँव की मिटटी की खुशबु वाली हवा का के क्या कहने! पहले वह ख़ुद पेड़ पर चढ़ती, फ़िर वहां से चिल्लाती की उसे तकिया और पढने के लिए कुछ चाहिए, और पूरी दुपहरी अपने कजिन की स्कूल बुक्स में से कहानियाँ पढ़ते हुए बिताती

उसकी बड़ी मामीजी नीम के पेड़ के प्रति उसकी ये दीवानगी देखकर नीचे से आवाज़ लगाती. 'रश्मि बाई नीचे आ रही हैं की रोटी भी ऊपर ही पहुँचा दूँ?'

ये 'बाई' उसके नाम में सम्मानपूर्वक लगा दिया जाता जो उसे खासा पसंद तो नहीं था, पर जब इतने प्यार से उसे ये संबोधन दिया जाता तो उसे अच्छा लगता.

और वह कहती 'हाँ मामीजी, क्यूँ नहीं! मैं तो एक ट्री हाउस बनने की सोच रही हूँ,' और फ़िर उसे उन्हें समझाना पड़ता की ये ट्री हाउस क्या होता है !

वो दिन तो कब के हवा हुए जब उसकी बहने मेहंदी की ताज़ा पत्तिया तोडके, उन्हें सुखा और पीस कर मेहंदी लगाती थी. छोटी लड़कियों के यही सब काम होते थे और उसे बहुत अच्छा लगता था जब माएँ इनमे अपनी बेटियों को प्रोत्साहन देती थी. और माँ के प्रेम का रस उसकी रंगत और निखार देता था. अब तो वहां भी 'समय की कमी' आधुनिक कोन (जिन्हें वहां कुप्पी कहा जाता है) प्रचलित हो गए हैं. वह जब भी कोई मेहंदी का पेड़ देखती है, जो में प्रायः दुर्लभ से हो गए हैं तो अपने बचपन को बहुत मिस करती है.

रात को वह नानाजी के पास होती तो उनसे और दादाजी के पास होती तो उनसे कहानियाँ सुनती. उसे अपना परिवार और गाँव बहुत पसंद है. आज भी जब वह अपने भाई बहनों के साथ पुरानी यादे ताज़ा करती है तो वो चकित होते हैं की इसे तो सब याद है! अब तो सब के सब इतने बड़े हो गए है, सब दीदियों की शादी हो गई, समय पंख लगा के ही उड़ता है सच में! उसे अफ़सोस होता है, गाँव में पहले जैसा मज़ा नहीं रहा.

इतनी सारी धींगामस्ती के बाद जब वे घर लौटते तो उसकी क्लास की लड़किया उसे बताती की वह काली हो गई है तो वह उन्हें बताती 'गाँव गई थी न!' और थोडी परेशान हो जाती. अपनी क्लास की लड़कियों को गाँव की बाते सुनती और खुश होती की उन लोगों ने तो कभी गाँव देखा ही नहीं!

जब वह आठ साल की हुई तो मम्मी ने उसके स्कूल की संस्था द्वारा ही संचालित एक वर्किंग वूमेन हॉस्टल में स्टिचिंग एंड एम्ब्रोईडरी और जल्द ही सिखाने लगी. वहीँ मम्मी ने तोलानी पोलटेकनिक, आदिपुर से गारमेंट मेकिंग में डिप्लोमा भी कर लिया. उसे अपने दोस्तों ये बताना बहुत अच्छा लगता की उसकी मम्मी जॉब करती है.

इस बिल्कुल साधारण लड़की में एक असाधारण बात थी. और वह थी मशहूर होने की इच्छा, जिसने अभी ज़ोर मरना शुरू नहीं किया था. जब टीवी पर किसी का इंटरव्यू आता तो वह उस जगह ख़ुद को रख के सोचती और तय करती की इस तरह के सवालो के उसे क्या जवाब देने होंगे. वह सपने तो देखती थी एक सेलेब्रिटी बन जाने के, लेकिन उसने ख़ुद ही कभी अपने आपको गंभीरता से नहीं लिया. वह लापरवाह और मस्त मौला थी.

असाधाराण बाते होना तो हमारी कहानी में अब शुरू हुआ. जब वो अपने पापा के साथ अपना थर्ड क्लास का रिजल्ट लेने गई तो उसकी हिन्दी वाली मैम ने, जो उनकी क्लास टीचर भी थी, मुस्कुराकर उसका रिपोर्ट कार्ड उसे दिया. वह तो समझी ही नहीं की मुस्कुराने वाली क्या बात हो गई! अरे, वो तो तब भी नही समझी जब मैम ने बताया की उसका क्लास में सेकंड रैंक लगा है. जब उसे समझ आया तो उसने चाहा कि काश ! फर्स्ट आया होता. लेकिन अब अपने क्लास के बच्चो को वह जला नहीं सकती थी की क्योंकि वे लोग तो जा रहे थे अजमेर.

उसके पापा का ट्रान्सफर अजमेर हो गया था. अजमेर आने से पहले उसे डराया गया की राजस्थान में हिन्दी, साइंस और मैथ्स बहुत हार्ड होती है. मैथ्स और साइंस तो नहीं पर अजमेर की हिन्दी ने उसे उसकी असलियत बता दी.

गुजरात में हिन्दी पर इतना ज़ोर नहीं दिया जाता था, और वह अजमेर आते ही स्कूल के इनटरव्यू में हिन्दी में फेल हो गई. उसके पापा को स्कूल में लिखकर देना पड़ा कि अगर अब दुबारा वह फेल हुई तो उसे स्कूल से निकला जा सकता है. यहाँ भी वे लोग किराये के मकान में ही रहे और वह अपने पापा से रोज़ सुनती कि हमारा मकान बन रहा है

वह अपने नए स्कूल में बहुत खुश थी. लेकिन उसे बहुत मेहनत करनी पड़ रही थी, जिंदगी में पहली बार उसने ये देखा कि उसकी मेहनत से उसके टीचर्स बहुत प्रभावित और खुश थे. उसे पहली बार पेन का इस्तेमाल करने को मिल रहा था. क्लास के सभी बच्चे इससे बहुत उत्साहित थे, वे अपने आपको बड़ा महसूस कर रहे थे और ज़िम्मेदारी का अनुभव कर रहे थे. वे अपने फाउंटेन पेन कि क्वालिटी और मेंटिनेंस के प्रति बहुत सजग रहते थे.

पहले क्वाटरली एक्जाम में उसका सेवेंथ रैंक लगा. वैसे तो उसके लिए संतोष कि बात थी लेकिन जिस दिन बड़े सर टोपर्स को उनके टोपर्स वाले बिल्ले प्रदान कर रहे थे, उसके दिल में दर्द हुआ. उसने अजीब सी दुआ की, उसने चाह कि टोपर्स के बिल्ले टेंथ रैंक तक वाले बच्चो को दिए जाते हो. पर उसकी क्लास के पहले तीन टोपर्स को ही ये दिए गए. उसने सोच लिया अगली बार तो वही इसकी हक़दार होगी, और उसने कल्पना भी कर डाली कि कैसे वह मंच से अपनी युनिफोर्म पर लाल रंग का चमकता हुआ बिल्ला लगाकर उतरेगी. ये उसके जीवन का पहला ऐसा दिन था जब उसे ये बात बिलकुल भी हज़म नहीं हो रही थी कि वह साधारण बच्चो के बीच दर्शको कि तरह बैठी है और कोई और उसकी आँखों के सामने से वह लाल बिल्ला लगाये गुजर रहा है. वह उस हृदयविदारक दृश्य को नहीं देख सकती थी.

वह जब घर लौटी तो उसके दिल में दो तरह कि विरोधाभासी भावनाए थी. एक तरह उसे सदमा लगा था तो दूसरी तरफ बहुत प्रेरणा से भरी थी. उसने अपने आपको याद दिलाया कि यदि वह इसी तरह लापरवाह बनी रही तो कोई और उसके हक छीनता रहेगा और वह अगर कुछ ख़ास नहीं करेगी तो अपने भाई के लिए भी कुछ नहीं कर सकेगी. वह अपने आप पे चिल्लाई कि उसे बड़ी बड़ी बाते तो खूब करना आता है पर वह इतनी बुरी है कि सपने सिर्फ देखती है पूरे करने के लिए कुछ नहीं करती. वह एक ही क्षण में दोनों कल्पनाये कर लेती थी... मानो उसने पूरे स्कूल में टॉप किया है या सोचो कि वह स्कूल से निकाल दी गयी है !

उसे चाहे देर रात तक एक ही जगह बैठे रहना पड़ता पर वह सारा होमवर्क किये बिना नहीं उठती. उसकी मम्मी अस्पताल में भरती थी और घर का ज़िम्मा नानी जी और दादीजी ने उठा रखा था. 7 अगस्त 2000 को शाम 6 बजे पापा ने अस्पताल से लौट कर उन्हें "रवि' के जन्म की खबर सुनाई. उसने ख़ुशी ख़ुशी अपनी मैथ्स कि कॉपी के पीछे उसका जन्मदिन लिखा, बिना ये सोचे कि ये कॉपी तो अगले साल ही रद्दी हो जायेगी. वह अपने छोटे भाई को गोद में लेना चाहती थी पर उसे बताया जाता कि वह बहुत छोटी है उसे नहीं उठा सकती. वह बहुत छोटा और नाज़ुक सा था. उसे ये बहुत अच्छा लगा कि उनके घर में भी एक छोटा बच्चा है, और वह जानती थी कि जब वह अपनी सहेलियों को उसके बारे में बताएगी तो उन्हें बहुत कौतुहल होगा औरउसे बहुत आनंद आएगा, वह जानती थी.

उन्हें ढेर सारा होमवर्क दिया जा रहा था. उनका कोर्स बहुत लम्बा था लेकिन वह कुछ भी अधुरा नहीं छोड़ती थी. वह खूब मेहनत करती थी और जब थक जाती तो अपने प्यारे भाई को निहारती. उन्हें इस बात का ख्याल रखना पड़ता था कि प्रतीक कहीं रवि को नुक्सान न पहुंचा दे. प्रतीक ये स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि आजकल उसकी मम्मी पूरे पूरे समय रवि के साथ व्यस्त रहती थी. वह बिलकुल भी सहज नहीं था और उसे ये बात तो बहुत बुरी लगती थी कि उसे रवि को छूने नहीं दिया जाता था. इसलिए वह उसे अकेला पाते ही छूने की कोशिश करता लेकिन इसी में रवि को नाखून से खरोंच लग जाती. वह प्रतीक के पास रहती और कोशिश करती कि उसे अकेलापन न लगे.

दूसरे ही क्वाटरली एक्जाम में उसे पहला रैंक हासिल हो गया. वह इतनी खुश थी कि चाहती थी कि मम्मी पापा को उसके साथ डांस करना चाहिए. वह बेसब्र होकर अपने सहपाठियों से पूछती रहती थी कि टोपर वाले बिल्ले कब बांटे जायेंगे.

अब वह अपने ख़ास लाल बिल्ले के साथ बहुत खास बन गयी थी. बड़े गर्व के साथ रोज़ सुबह उसे अपने सीने पर लगाती और स्कूल में अपने आपको ख़ास समझती. उसकी सहेलिया भी अब उसके साथ रहने में गर्व का अनुभव करती. पर उसे एक लड़की जिसके मार्क्स अच्छे नहीं आते थे, मल्लिका से सहानुभूति थी. वह उसके सामने गर्व का प्रदर्शन नहीं करती थी और उसे अपनी बेस्ट फ्रेंड बना लिया था. वह मल्लिका को मलाई और मल्लिका उसे रसमलाई बुलाती थी.

जो चश्मे वाला लड़का उनकी क्लास में पहले टोपर हुआ करता था, उसके व्यव्हार में आकस्मिक परिवर्तन आया था. वह सोचती थी ये बहुत ज्यादा नाइंसाफी है. अगर उसने टॉप किया है तो ये उसकी अपनी मेहनत है, उस लड़के को इस तरह दया का पात्र बनने कि कोशिश नहीं करनी चाहिए. लेकिन वह टीचर्स कि नज़रो में अब भी चहेता था और क्लास का मोनिटर था. लेकिन उसने टीचर्स के समर्थन को भुनाने कि कोशिश की और जाकर बड़े सर से कहा कि रश्मि को ही मोनिटर बना दिया जाये. और उसे बड़े सर ने बहुत डाँटा कि उसे टोपर होने पर पुराने टोपर के साथ बुरा व्यवहार नहीं करना चाहिए. उसे उस दिन बहुत गुस्सा आया था.

लेकिन उसने परवाह करनी छोड़ दी और वह क्लास में टॉप करती रही. उनका होमवर्क हालाँकि उन्हें जीने नहीं देता था पर वह बहुत खुश थी. उसे लगता था अब जल्द ही सबकुछ ठीक हो जायेगा और वह तीनो भाई बहनों के सुनहरे भविष्य कि कल्पना करती थी.

उन्ही दिनों पापा ने अखबार में पढ़ कर बिहार के एक लड़के तथागत तुलसी के बारे में बताया कि उसने किस तरह दस साल कि उम्र में दसवी कर ली है. इसके बारे में उसने अपने दोस्तों को बताया लेकिन उन लोगों ने इस बात को असंभव बताते हुए इसे सिरे से नकार दिया. उसने मन में सोचा कि वह भी ये करके दिखा सकती है लेकिन वह यह कर दिखने के लिए उन लोगों के संपर्क में नहीं रही, उसे स्कूल छोड़ना पड़ा.

जब रवि तीन महीने का था वे लोग अपने मकान में शिफ्ट हो गए जिस वजह से उसे अपना स्कूल बदलना पड़ा. पांचवी क्लास में उसे पहली बार हिंदी मीडियम स्कूल में डाला गया. यहाँ के जानलेवा होमवर्क से वह दिनरात सर धुनने लगी. उसके लिए अब ये बहुत मुश्किल हो रहा था. वह किताबो में डूबी रहती थी. न अपने भाइयो को सँभालने में, न घर के कुछ काम में मदद कर सकती थी. और बहार खेलने जाना तो उसके लिए सपना ही हो गया था. पहले क्वाटरली एक्जाम देने के बाद उसने स्कूल जाना छोड़ दिया. अब ये सब उसकी बर्दाश्त के बाहर हो गया था.

इस बीच पड़ोस कि कुछ दसवी कक्षा कि लड़किया उसके पापा से मैथ्स में कुछ मदद लेने आती थी. उनके सवाल उसे बहुत रोचक लगते थे और वह बैठे बैठे दसवी कि किताबे पढ़ती थी. और बड़ी आसानी से उनके सवाल हल कर देती थी. मम्मी पापा ने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वह एक महीने में पूरी बीजगणित हल करदे तो उसके लिए ओपन से दसवी का फॉर्म भर दिया जायेगा. उसे तो चुनौतिया लेना बड़ा पसंद था. "हाँ , मै तो चुटकियों में कर सकती हूँ !"

और इस तरह घर पर ही उसकी दसवी कि पढाई शुरू हो गयी. उसके पापा उसे गणित, विज्ञान और मम्मी उसे इंग्लिश, गुजराती, सामाजिक विज्ञानं पढाती. उसकी क्लास कि लड़किया इस बीच कई बार उसके घर आती रही उसे समझाने कि वह पढाई क्यों छोड़ रही है ? उसने सब लोगों को यही कह रखा था. वे सबको बताते थे कि लड़की को वैसे भी घर के काम करने है, पढ़ कर क्या करेगी. और लोगों के चकित होने का आनंद लेते थे. पापा ने कमिटमेंट किया था कि वे उसे दसवी पास करने पर कंप्यूटर दिलाएंगे.

जब वह परीक्षा देने गयी तो भी असमंजस कि स्थिति में रही क्योंकि उसे वहां गलती से आ गयी एक बच्ची समझा जाता रहा. लोगों ये विश्वास करने में थोडा समय लगा कि वह भी वह दसवी का पेपर देने आई है. उसके पापा पूरे तीन घंटे बहार धूप में खड़े उसका इंतज़ार करते रहे. जो लड़किया उसके कमरे में ही परीक्षा देती थी अगले दिन तक उसकी दोस्त हो गयी थी. और वह सबकी दुलारी भी बन गयी थी. उसे बड़ा मज़ा आता था जब उससे उम्र में पांच साल बड़ी लड़किया परीक्षा के बाद उससे पेपर के सवाल समझती थी. उसे बहुत अच्छा लगता था पेपर पर हस्ताक्षर करना, और ये भी कि एक्जाम में उन्हें पानी पिलाने भी एक आदमी आता था. वह अपने आपको बहुत बड़ा महसूस कर रही थी और बेहद असाधारण भी !

उसके गणित के पेपर में एक गड़बड़ हो गयी. जब पानी पिलाने वाला आया तो उसकी कॉपी पर पानी गिर गया. चूँकि वह फाउंटेन पेन से लिखती थी इसलिए उसका लिखा हुआ सब धुल गया. पर उसे न दूसरी कॉपी दी गयी न एक्स्ट्रा टाइम. और उसने इस बारे में किसी से कुछ नहीं कहा. जब रास्ते में पापा को बताया तो वे बिगडे कि उसी वक़्त क्यों नहीं बताया.

सन 2002 में वह 9 साल 9 माह की उम्र में दसवी करने वाली राजस्थान कि पहली लड़की बन गयी. 63 प्रतिशत अंको के साथ. उस दिन के बाद से उसे लगा कि सबकुछ बदल गया है. वह सचमुच बहुत ख़ास महसूस कर रही थी और पूरी गर्मी की छुटिया उसे अपने आपको ये भरोसा दिलाने में लग गयी कि वह वही ख़ास लड़की है ! घर पर आने वाले मेहमान उससे खासतौर पर मिलना चाहते थे और उससे मिलकर बहुत गर्व महसूस करते थे. उसके मम्मी पापा भी बहुत खुश थे.

उसने ग्यारवी जीव विज्ञानं की नियमित छात्रा के रूप में श्री गुरुनानक उच्च माध्यमिक कन्या विद्यालय में प्रवेश लिया. पहले ही दिन उसे ये साबित करने में परेशानी हुई की वह ग्यारहवी में पढ़ती है. वो तो अच्छा था कि वह अखबार में छपी न्यूज़ कि कटिंग साथ ले गयी थी. वह क्लास में सबको दीदी (आखिर वे लोग उससे पॉँच पॉँच साल बड़े थे !) बुलाती थी और सबकी दुलारी थी. और सब लोग उसे छुटकी बुलाते थे. वह उन्हें दीदी तो बुलाती थी पर अपने आपको उन सबके बीच ही सहज पाती थी. उसे अपनी उम्र के लोग तो अब भी बच्चे ही लगते थे !

अजमेर में आने के बाद उसे मिली उसकी सबसे अच्छी दोस्त, रागिनी. उसे तो पता ही नहीं था के वह उसकी ही क्लास में पर अलग सेक्शन में गुजरात में भी पढ़ती थी. वह सिर्फ उसकी ऐसी इकलौती दोस्त है जो उसकी उम्र की है और उन दोनों की दोस्ती को किसी भी बात से फर्क नहीं पड़ता, उनकी दोस्ती के अपने उसूल हैं. वह उसकी बेस्ट फ्रेंड है. उसे रागिनी की एक बात बहुत पसंद है... उसने कहा था... सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग ! वे दोनों मस्ती में कहती रहती हैं... हम बने तुम बने एक दूजे के लिए... !

उसे बड़ी जल्दी बड़े लोगों के साथ रहने की आदत पड़ गयी. और कोई भी परेशानी नहीं हुई. बल्कि कभी कभी तो वह उनके बचपने पर भी हैरान हो जाती थी, उसे ये बहुत अजीब लगता था कि वे इतने बड़े होने के बावजूद अख़बार पढने में रूचि नहीं रखते ! या तोह वह सबसे अलग थी या ये सब लोग उससे बहुत अलग है, वह सोचती थी.

उसे नयी चीजे जानना बहुत अच्छा लगता था. बल्कि वह तो सोचती थी कि जानने को इतना कुछ है कि पॉँच साल बचा कर भी वह कुछ ख़ास नहीं कर पायी है. बायोलोजी की लैब में आने से तो उसे मानो उसे मुहमांगी मुराद मिल गयी. वह मन ही मन खूब हंसी जब उसने देखा कि उसकी क्लास कि एक लड़की साँपो वाली आलमारी देखकर रोने लगी, उसके लिए तो ये सब बहुत रोमांचक था. उसकी नज़र में बोतलों में बंद वो जानवर बहुत प्यारे और खूबसूरत थे.

सबसे ज्यादा मज़ा उसे जानवरों का डिस्सेकशन करने में आता था. कभी कभी वह सोचती थी कि उनकी पढाई के लिए कितने जीव मारे गए हैं, लेकिन अगले ही पल वह कहती थी, ये अपनी स्पीशीज की बेहतरी के लिए 'शहीद' हुए हैं !

"ये लजीज कॉकरोच का अचार आपकी खिदमत में ! " जार में भरे हुए कौक्रोचेस को वॉच ग्लास में निकाल कल बायोलोजी के स्टुडेंट मैथ्स वाले स्टूडेंट्स को छेड़ते थे.

उसके लैब रेकॉर्ड्स बहुत सुंदर होते थे ऐसा उसके टीचर्स कहते थे. उसका ख़ास ख्याल रखा जाता था. वह इतनी छोटी थी कि केमिस्ट्री की लैब में उसे ब्युरेट भरने के लिए बेंच पर खडा होना पड़ता था.

उसने 62 % अंको के साथ बारहवी जीव विज्ञान उत्तीर्ण कर ली. उन दिनों वह लगातार हैरी पॉटर श्रंखला की सफलता और उसकी लेखिका जे. के. रोलिंग के करोड़पति होने के बारे में सुन रही थी. उसने हैरी पॉटर कि पहली किताब पढ़ी और पाया कि इसकी लेखिका पाठको को भरपूर मनोरंजन तो दे रही हैं और भरपूर कमा भी रही हैं, लेकिन इस सबका फायदा ?

उसने फैसला किया कि वह एक बाल उपन्यास लिखेगी लकिन उसके द्बारा लोगों को कोरा मनोरंजन ही नहीं देगी बल्कि वह भरी होगी औटिस्म के प्रति जागरूकता से, पर्यावरण समन्धित और सामाजिक संदेशो से. और उसने लिखा अपना पहला साइंस फिक्शन बाल उपन्यास का पहला भाग "जूही और मिरेकल लैंड."

वह 11 साल कि उम्र में सन 2004 में कॉलेज में आ गयी।कॉलेज उसे वह चाहिए था जो हमेशा सुर्खियों में बना रहता हो... "G.C.A. " (गवर्नमेंट कॉलेज अजमेर) एक ऐसा स्थान है जहाँ सब तरह के जीव जंतु पाए जाते है ! कॉलेज के स्टूडेंट्स कहते रहते हैं. इन्ही के कारनामो की वजह से कॉलेज हमेशा सुर्खियों में बना रहता है.छात्रसंघ चुनाव के दौरान जब छात्रनेता उससे अपनी पार्टी को वोट देने की अपील करते थे तो वह मजाक में कहती थी.. कि वह अभी 18 की नहीं है, वोट नहीं कर सकती ! वह फर्स्ट इयर में थी सिर्फ तब ही वोट कर सकी फिर कॉलेज में चुनाव होने बंद हो गए. वरना कौन जानता है वो भी चुनाव लड़ ही लेती !

उसने राजकीय महाविद्यालय अजमेर से सन 2007 में जीव विज्ञान में स्नातक और सन 2009 में प्राणी विज्ञान में स्नातकोत्तर किया. 2008 में उसके जन्मदिन 29 सितम्बर को उसकी किताब प्रकाशित हो गयी। जब से एक अखबार ने ये लिखा कि मिरेकल गर्ल की किताब बाज़ार में, वह इस नाम से भी जानी जाने लगी... लेकिन उसे अपने आपको स्ट्रेंज गर्ल कहाना बहुत पसंद है. वह इसे होने वाली आय को विशेष बच्चो के विशेष स्कूल में दान करना चाहती है और चाहती है कि हर जिले में ऐसा स्कूल हो और लोगों की पहुँच में भी हो.

कॉलेज में उसका समय बहुत ही अच्छा गुजरा. शुरूआती दिनों में वह अक्सर सुनती थी...

"आज कल कॉलेज में बच्चे भी आने लगे हैं यार !"

और तपाक से कहती थी "हाँ अंकल, अब आप जैसे बूढे लोग कॉलेज छोड़ ही नहीं रहे तो मुझे आना ही पड़ा !"

क्लास में हर काम के लिए उसे ही आगे किया जाता "तू छोटी है, तू कर सकती है !" चाहे वह कॉलेज कि कल्चर नाईट में डांस करना हो या टीचर को बुला के लाना हो डॉग फिश में सबसे पहले चीरा लगाना हो (तुझसे गलती भी होगी तो तुझे डांट नहीं पड़ेगी.) या किसी लड़के को पलटकर जवाब देना हो! वह किसी से नहीं डरती!

उसे अपने दोस्त बहुत पसंद है, यहाँ तक कि क्लास में हमेशा उसके वह और उसके दोस्त मिसाल रहे. लेकिन वह दोस्त बनाने में बड़ी सजग है (हर कोई इतना खुशकिस्मत तो नहीं हो सकता न जो उसका दोस्त बन सके, वह सोचती थी.) लोग आसानी से उसे बेवकूफ नहीं बना सकते, आखिर दुनिया में ऐसे लोगों कि कमी तो नहीं होती जिन्हें मतलब के दोस्त कहा जाता है !और उसे झूठ से सख्त नफरत है!

उसे घमंडी लोगों से बड़ी सहानुभूति है. 'बेचारे, नहीं जानते कि वे क्या मिस कर रहे हैं !' लेकिन वह लोगों के व्यक्तित्व से प्रभावित भी होती है ! और हाँ, दूसरो कि गलतियों से भी बहुत सीखती है!

उसे कॉलेज में भी छुटकी बुलाया जाता रहा. कभी कभी एलियन या एंटीक पीस भी, (हाहा !) पर M.Sc . में आने के बाद उसे उसके नाम से बुलाया जाने लगा, गनीमत है!

PG स्टूडेंट्स साल में कुछ पार्टीज़ रखते हैं, जैसे टीचर्स डे, फ्रेशर्स पार्टी और फरेवेल्ल पार्टी. पापा कहते हैं.. नो नालेज विदोउट कॉलेज ! उसने ये बखूबी जाना. M.Sc . के विद्यार्थी मिलकर ये आयोजन करते हैं. और इसमें उसकी चटपटी कविता या राजस्थानी डांस न हो, हो नहीं सकता !

उसने M.Sc . प्रीविअस में PG सेमीनार में पहला पुरस्कार जीता और और बहुत खुश थी कि उसने अपनी उम्र से पॉँच साल बड़े लोगों को पछाड़ दिया है. कॉलेज के लेक्चरर्स उससे हमेशा कुछ ज्यादा की उम्मीद रखते थे. "रश्मि, तुम तो अच्छी लड़की हो न !"

वह मन ही मन कहती थी "हाँ अच्छी लड़की कहकर टीचर्स मुझसे सब काम करवा लेते हैं !" लेकिन उसे मज़ा आता था. आखिर वह क्लास कि सबसे छोटी, सबसे ज़हीन और बिंदास लड़की के तौर पर पहचानी जाती है ! वह बड़े लोगों और टीचर्स से हमेशा अधिक से अधिक सीखने की कोशिश करती है. वह एक बार गर्ल्स असोसिएशन कि एक्जीक्यूटिव मेंबर भी बनी और उसने NSS भी ज्वाइन किया.

प्रसिद्धी के साथ जिम्मेदारी कि भावना को शिद्दत से अपने अन्दर महसूस करती है. उसे लगता है बाकी सब लोगों ने तो सोचना बंद कर दिया है, अब वह ही नहीं कुछ करेगी तो इस संसार का क्या होगा ! (जानती है ये कुछ ज्यादा है, पर अपने आपको मोटिवेट करने का सदाबहार तरीका है ! सॉरी !)

अब डॉक्टर नहीं बनना चाहती (वैसे पीएचडी करके भी वह डॉक्टर ही बन जायेगी) साइंटिस्ट बनना चाहती है. लेकिन उसने पाया है कि औटिस्म के विषय में जितनी खोज हो चुकी है वह भी आम लोगों के किसी काम की नहीं ! क्योकि लोगों कि पहुँच में नहीं, कमी है जागरूकता की। विशेष बच्चो को सामान्य जीवन जीने के लिए विशेष स्कूलों में पढने की बहुत जरुरत है पर ज्यादातर लोग इस बारे में कुछ जानते ही नहीं।

वह समाज सेविका भी बनना चाहती है इन विसंगतियों को दूर करना चाहती है। उसे पढना और लिखना बहुत पसंद है। आखिर वह जानती है कि एक्सपर्ट वह है जो अपने क्षेत्र कि पूरी और सभी क्षेत्रो की थोडी थोडी जानकारी रखता है। वह इस दुनिया को रहने कि एक बेहतर जगह बनाना चाहती है. वह एक असाधारण लड़की है और ये असाधारण काम ज़रूर करेगी !

अब रवि केंद्रीय विद्यालय नं. 1 मे फिफ्थ क्लास में पढता है और बहुत मेधावी है. उसे क्रिकेट पसंद है और वह हर कदम पे दीदी से बेहतर कर दिखाना चाहता है लोगो को वैसे भी उससे कुछ अधिक ही उम्मीदे हैं.प्रतीक मीनू मोविकास मंदिर, चाचियावास, अजमेर में ग्रेड थर्ड में पढता है, वहीँ हॉस्टल में रहता है और तेजी से रिकवर हो रहा है. हालाँकि घर से दूर रखने का ये फैसला उसकी माँ के लिए कठोर था परन्तु वहां की संतुलित दिनचर्या और कदा अनुशासन ही उसके भले के लिए ठीक है. वह छुट्टियों में घर आता है, उसके वहां बहुत से दोस्त है और वह बहुत खुश रहता है.

उसने पूरी तरह अपना ध्यान अपने मिशन पे लगाया हुआ है और वह जानती है एक दिन इसे पूरा कर ही लेगी। आखिर ... ~journey of million miles starts with a single pace~...

धन्यवाद.

सारे बुद्धि वाले जीव, ओह सॉरी, बुद्धिजीवी जानते हैं कि ये छुटकी उर्फ़ नन्ही लेखिका उर्फ़ रश्मि मै ही हूँ !

Thursday, July 23, 2009

"मै एक छोटी सी लड़की हूँ"

"मै एक छोटी सी लड़की हूँ"


मै एक छोटी सी लड़की हूँ
सुबह की पहली किरण सी उजली हूँ
छा जाउंगी नभ पर,यही ख्वाब बुनती मै पली हूँ
मै एक छोटी सी लड़की हूँ

यूं तो अकेले ही अपनी मंजिल की और बढ़ी हूँ
पर कुछ सपने और जोड़ लिए हैं खुद से
और सबको साथ लेके चल पड़ी हूँ
मै एक छोटी सी लड़की हूँ

निश्चय बहुत ही द्रिड़ है मेरा, तूफानों में ढली हूँ
पसंद है मुझे लड़ना और जीत जाना,
पर दिल की बहुत भली हूँ
जानती हूँ मुझ जितने भले नहीं लोग,
जरा सी इसी बात से डरी हूँ
मैं एक छोटी सी लड़की हूँ

नाजुक हूँ स्वर्ण सी, आग में तप कर ही निखरी हूँ
जीत लूंगी सारा गगन इसी संकल्प के साथ मैदान में उतरी हूँ
मैं एक छोटी सी लड़की हूँ

आँखों में सपने जरुर है, पर हकीक़त के धरातल पे मै चली हूँ
अटल है मेरे इरादे बलबूते जिनके मै इस राह निकली हूँ
मैं एक छोटी सी लड़की हूँ

भर दूंगी जीवन हवाओं मे, प्रेम की स्वरलहरी हूँ
सरल हूँ प्रकृति मे जितनी, मन की बहुत गहरी हूँ
मंजिल बहुत दूर है अभी, मैं कब कही ठहरी हूँ
मै एक छोटी सी लड़की हूँ

परिचित हूँ अपनी शक्ति से, हौसलों से भरी हूँ

न केवल अपने लिए बल्कि सबके हक के लिए खड़ी हूँ
मै एक छोटी सी लड़की हूँ

उम्मीदे लगी है, मुझसे मेरे अपनों की,
उत्साह पाकर जिनसे मै डटी हूँ
अब हटूंगी नहीं पीछे,
दिखा दूंगी, मैं बड़ी हठी हूँ
मै एक छोटी सी लड़की हूँ

पर्वत सा विशाल पापा का विश्वास है,
मै उनके सपनो की रौशनी हूँ
कितनी काबिल हूँ दिखला दूंगी,
माँ के चमन में जो खिली हूँ
मै एक छोटी सी लड़की हूँ

हाँ, मै एक छोटी सी लड़की हूँ,
पर डैने फैलाये अपने, उडान को तैयार खड़ी हूँ
समेट लूँगी आसमान मुट्ठी में,
हाँ मैं आसमान से बड़ी हूँ
मै एक छोटी सी लड़की हूँ

save the girl child !

ज़रूर बताईये अपनी प्रतिक्रिया आपकी अपनी नन्ही लेखिका रश्मि की इस कविता पर...
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